रीवा/ मऊगंज : प्रकृति की इस व्यवस्था में धरा की एक जर्रा मऊगंज भी है लेकिन सौभाग्य कहें दुर्भाग्य कि प्रकृति के इस जर्रे की ही हिस्से में में अभिशाप जैसे हालात ही नजर आते हैं क्योकि अपने आजादी के बाद से मऊगंज अपने पहचान और अस्तित्व के लिए वह जद्दोजहद कर रहा है जो शायद ही इस धरा में कोई कर रहा हो,बतौर बानगी कि इस धरा की कोई पैदाइश यां तो महज उदर पोषण,या बेतादात संपत्ति कमाने के आलावा क्षेत्र, निर्बल और पीड़ित के हितार्थ काम करता व्यक्तित्व आज तक इतिहास में दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है।जिसके नाम पर यह कहा जाय कि फलां व्यक्ति द्वारा यह सफलतम वह काम किया गया जो एक मिसाल है । हां एक दुखद पहलू यह जरूर है कि एक नहीं अनेक मिसालें मिल जाएँगी कि,
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फलां व्यक्ति ने ऐसे ऐसे नकारात्मक कार्य किए जिससे अनेक सामान्य जनों की दुर्गति हो गई।
लेकिन मदमस्त तथाकथित प्रभावशाली लोगों की बजह से जहाँ जनसामान्य और मऊगंज की धरा की मिट्टीपलीद हुई वही तथाकथित वही तमाम प्रभावशाली भी समय समय पर जमीदोज होते गए जो आजीवन अपने को समाज का भाग्य विधाता बनने का दंभ भरते रहे ।लेकिन बेशर्मी की पराकाष्ठा इस हद तक कि आज भी कुछ कुर्ता पायजामा जब बात करते हैं अंतराष्ट्रीय स्तर की क्षेत्र के उत्थान की ही बात करते तमाम चौराहे और पान के टपरे में देखे जा सकते हैं।
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इस बीच क्षेत्रीय दंभीयों को समय-समय पर बाहर से आए आयातित लोग अर्थात नेता आईना दिखाते रहे या कहें कि औकात बताते रहे लेकिन दुखद है सब बेअसर रहा खुद लूटते रहे अपनों को लुटाते रहे लेकिन अकड़ नहीं गई, रस्सी जली लेकिन ऐठन नहीं गई आज भी अपनी सोच बदलने कुछ सीखने और बदलाव लाने की जरूरत नहीं समझी जा रही है,जो बताता है कि अभी काफी अर्से तक मऊगंज को अभिशप्त रहना है स्थानीय लोगों का दंभ बाहर से नेताओं के लूट में अपना और बच्चों का भविष्य खोजते रहना है।